Ala Hazrat Ahmed Raza Khan Barelvi के 99 इरशादात और इल्म

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Sayyadi Ala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan Barelvi आला हज़रत की इस्लाम पर 99 इरशादात और इल्म, aala Hazrat आला हज़रात का जन्म /Date Of Birth, Name Of Ala

Ala Hazrat Ahmed Raza Khan Barelvi के 99 इरशादात और इल्म


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    आला हज़रात Ala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan Barelvi की ज़िन्दगी की तफ़्सीरी मालूमात और आला हज़रात की शान 

    आला हज़रात का जन्म /Date Of  Birth Ala Hazrat Ahmed Raza Khan Barelvi

    सरकारे आला हज़रत , इमामे अहले सुन्नत , इमाम अहमद रज़ा खान की विलादत ( Birth ) बरेली शरीफ़ के महल्ला जसूली में 10 शव्वालुल मुकर्रम 1272 हि . बरोज़ हफ्ता ब वक्ते जोह मुताबिक़ 14 जून 1856 ई . को हुई । ( हयाते आ'ला हज़रत Ala Hazrat, 1/58 ) 


    आला हज़रात नाम / Name Of Ala Hazrat Ahmed Raza Khan Barelvi

    आप का नामे मुबारक " मुहम्मद " है और आप के दादा ने अहमद रज़ा कह कर पुकारा और इसी नाम से मशहूर हुए । 

    आप ने कमो बेश 50 उलूम में कलम उठाया और बड़ी इल्मी आन शान की कुतुब लिखीं , आप अक्सर किताबें लिखने में मसरूफ़ रहते । पांचों नमाज़ों के वक्त मस्जिद में हाज़िर होते और हमेशा नमाजे बा जमाअत अदा फ़रमाया करते , आप ने मुख़्तलिफ़ उन्वानात पर कमो बेश एक हजार किताबें लिखी हैं । 

    ( तज़्किरए इमाम अहमद रज़ा , स . 16 ) 

    इमामे अहले सुन्नत , आ'ला हज़रत के मुख़्तलिफ़ इर्शादाते मुबारका पढ़िये और इल्मे दीन का खज़ाना लूटिये , येह इर्शादाते इमाम अहमद रज़ा Imam Ahmad Raza सय्यिदी आ'ला हज़रत  की मुख्तलिफ़ कुतुब से लिये गए हैं । 

    वलिय्ये कामिल , आशिकों के इमाम अहमद रज़ा खान Imam Ahmed Raza Khan Barelvi के फ़रामीन आप की ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ शो'बों में बड़े काम आने वाले " रहनुमा उसूल " साबित होंगे । आ'ला हज़रत Ala Hazrat की अपनी इल्मी शान और उस वक्त की उर्दू के ए'तिबार से इन 

    इर्शादात को हत्तल इम्कान आसान अल्फ़ाज़ में पेश करने के लिये मौक़अ की मुनासबत से ब्रेकेट लगाई गई हैं , अल्लाह करीम हमें इर्शादाते इमाम अहमद रज़ा पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए । 


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    इल्मे खुदावन्दी की शान पर आला हज़रत Ala Hazrat Ahmed Raza Khan Barelvi का इर्शादत

    ( 1 ) बिला शुबा हक़ येही है कि तमाम अम्बियाओ मुरसलीन व मलाइकए मुकर्रबीन व अव्वलीनो आख़िरीन के मज्मूआ उलूम ( या'नी सारे नबियों , रसूलों , मुकर्रब फ़िरिश्तों और अगले पिछलों के इल्म ) मिल कर इल्मे बारी ( या'नी अल्लाह पाक के इल्म ) से वोह निस्बत नहीं रख सकते जो एक बूंद ( Drop ) के करोड़ वें हिस्से को करोड़ों समुन्दरों से है । ( फ़तावा रज़विय्या , 14/377 ) 


    आख़िरी नबी की शान पर आला हज़रत Ala Hazrat Ahmed Raza Khan Barelvi का इर्शादत

    2 ) कोई दौलत , कोई ने'मत , कोई इज्जत जो हक़ीक़तन दौलतो इज्जत हो ऐसी नहीं कि अल्लाह पाक ने किसी और को दी हो और हुजूरे अक्दस को अता न की हो । 

    जो कुछ जिसे अता हुवा या अता होगा दुन्या में या आख़िरत में वोह सब हुजूर के सदके में है , हुजूर के तुफैल में है , हुजूर के हाथ से अता हुवा । ( फ़तावा रज़विय्या , 29/93 ) 


    ( 3 ) उम्मत के तमाम अक्वाल व अफ्आल व आ'माल रोज़ाना दो वक़्त सरकारे अर्श वकार हुजूर सय्यिदुल अबरार में अर्ज ( पेश ) किये जाते हैं । ( फ़तावा रज़विय्या , 29/568 ) 


     4 ) " कान बजने " का येही " सबब " है कि वोह आवाजे जां गुदाज़ उस मा'सूम आसी नवाज़ की ( उम्मती उम्मती ) जो हर वक़्त बुलन्द है , 

    गाहे ( या'नी कभी कभी ) हम ( में ) से किसी गाफ़िल व मदहोश के गोश ( कान ) तक पहुंचती है , रूह उसे इदराक करती ( या'नी पहचानती ) ( फ़तावा रज़विय्या , 30/712 )


    ( 5 ) मजलिसे मीलादे मुबारक , ज़िक्र शरीफ़ सय्यिदे आलम  है और “ हुजूर " का ज़िक्र " अल्लाह पाक " का ज़िक्र और ज़िक्रे इलाही से बिला वज्हे शई मन्अ करना " शैतान का काम " है । ( फ़्तावा रज़विय्या , 14/668 ) 


    ( 6 ) हुजूरे अक्दस ख्वाह और नबी या वली को " सवाब बख़्शना कहना " बे अदबी है , “ बख़्शना " बड़े की तरफ़ से छोटे को होता है , बल्कि नज्र करना या हदिय्या ( या'नी गिफ्ट ) करना कहे । ( फ़तावा रज़विय्या , 26/609 ) 


    ( 7 ) आला हज़रात का Ala Hazrat इर्शाद हिदायत तो नबिय्ये उम्मी के मानने पर मौकूफ़ है जो उन को न माने उसे हिदायत नहीं और जब हिदायत नहीं ईमान कहां ? ( फ़तावा रज़विय्या , 14/703 ) 


    ( 8 ) शरीअत हुजूरे अक्दस सय्यिदे आलम के अक्वाल हैं और तरीक़त हुजूर  के अफ्आल और हक़ीक़त हुजूर के अहवाल और मा'रिफ़त हुजूर के उलूमे बे मिसाल । ( फ़्तावा रज़विय्या , 21/460 ) 


    ( 9 ) मुसल्मान के दिल में हुजूरे अक्दस से तवस्सुल ( या'नी वसीला पकड़ना ) रचा हुवा है । इस की कोई दुआ तवस्सुल से ख़ाली नहीं होती अगर्चे बा'ज़ वक़्त ज़बान से न कहे । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/194 ) 


    ( 10 ) नबी बल्कि तमाम अम्बिया व औलियाउल्लाह की याद में " खुदा की याद " है कि उन की याद है तो इसी लिये कि वोह अल्लाह के नबी हैं , येह अल्लाह के वली हैं । ( फ़तावा रज़विय्या , 26/529 ) 



    तबर्रुकाते मुस्तफा पर आला हज़रत Ala Hazrat Ahmed Raza Khan Barelvi का इर्शादत

    ( 11 ) आला हज़रात का Ala Hazrat इर्शाद नबी ( करीम ) के आसार व तब काते शरीफ़ा की ता'ज़ीम दीने मुसल्मान का फ़र्जे अजीम है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/414 )


    ( 12 ) तबरीकाते शरीफ़ा भी अल्लाह पाक की निशानियों से उम्दा ( या'नी बेहतरीन ) निशानियां हैं इन के जरीए से दुन्या की जलील कलील पूंजी ( या'नी हक़ीर रक़म ) हासिल करने वाला दुन्या के बदले दीन बेचने वाला है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/417 ) 


    ( 13 ) तमाम उम्मत पर रसूलुल्लाह का हक़ है कि जब हुजूरे पुरनूर के आसारे शरीफ़ा ( या'नी तब कात में ) से कोई चीज़ देखें या वोह शै देखें जो हुजूर के आसारे शरीफ़ा ( में ) से किसी चीज़ पर दलालत करती हो तो उस वक़्त कमाले अदबो ता'ज़ीम के साथ हुजूरे पुरनूर सय्यिदे आलम का तसव्वुर लाएं और दुरूदो सलाम की कसरत करें । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/422 ) 


    फैजाने अम्बिया व औलियाए किराम पर आला हज़रत Sayyadi Ahmad Raza Khan  का इर्शादत

    ( 14 ) आलम में अम्बिया .और औलिया  का तसर्राफ़ ( या'नी इख़्तियार ) हयाते दुन्यवी ( या'नी जिस्मानी ज़िन्दगी ) में और बा'दे विसाल भी ब अताए इलाही जारी और कियामत तक उन का दरियाए फैज़ मोजज़न ( या'नी जारी ) रहेगा । ( फ़तावा रज़विय्या , 29/616 ) 


    ( 15 ) महबूबाने खुदा की तरफ़ जाना और बा'दे विसाल उन की कुबूर की तरफ़ चलना दोनों यक्सां ( या'नी बराबर हैं ) जैसा कि इमाम शाफ़ेई इमाम अबू हनीफ़ा  के मज़ारे फ़ाइजुल अन्वार के साथ किया करते । ( फ़तावा रज़विय्या , 7/607 ) 


    ( 16 ) महबूबाने खुदा ( या'नी अल्लाह वाले ) आयए रहमत ( या'नी रहमत की निशानी ) हैं , वोह अपना नाम लेने वाले को अपना कर लेते हैं और उस पर नज़रे रहमत रखते हैं । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/508 ) 


    ( 17 ) मशाइखे किराम दुन्या व दीन व नज्अ व क़ब्र व हश्र सब हालतों में अपने मुरीदीन की इमदाद फ़रमाते हैं । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/464 ) 


    ( 18 ) आला हज़रात का Ala Hazrat इर्शाद बरकत वालों की तरफ़ जो चीज़ निस्बत की जाती है उस में बरकत आ जाती है । ( फ़तावा रज़विय्या , 9/614 ) 


    ( 19 ) सहाबए किराम  में बीस से ज़ाइद का नाम " हकम " है , तकरीबन दस का नाम " हकीम " , और साठ से ज़ियादा का " ख़ालिद " और एक सो दस से ज़ियादा का " मालिक " सहाबए किराम के नाम । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/359 ) 


    फैजाने इल्म व उलमा पर आला हज़रत Sayyadi Ahmad Raza Khan का इर्शादत

    ( 20 ) येह लफ़्ज़ कि " मौलवी लोग क्या जानते हैं " इस से ज़रूर उलमा की तहकीर ( या'नी तौहीन ) निकलती है और उलमाए दीन की तहकीर ( या'नी तौहीन ) कुफ्र है । ( फ़तावा रज़विय्या , 14/244 ) 


    ( 21 ) आलिमे दीन को , जिस के इल्म की तरफ़ यहां ( या'नी उस शहर ) के लोगों को हाजत है उसे हिजरत ना जाइज़ है , हिजरत दर कनार ( या'नी दूर की बात उलमा ) उसे सफ़रे तवील की इजाजत नहीं देते । ( फ़्तावा रज़विय्या , 21/282 ) 


    ( 22 ) आला हज़रात का Ala Hazrat इर्शाद उलमाए शरीअत की हाजत हर मुसल्मान को हर आन ( या'नी हर वक्त ) है और तरीक़त में कदम    रखने वाले को और ज़ियादा । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/535 ) 


    ( 23 ) आम लोग हरगिज़ हरगिज़ किताबों से अहकाम निकाल लेने पर कादिर नहीं । हज़ार जगह गलती करेंगे और कुछ का कुछ समझेंगे , इस लिये येह सिल्सिला मुकर्रर है कि अवाम आज कल के अहले इल्म व दीन का दामन थामें । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/462 )


    ( 24 ) आला हज़रात का Ala Hazrat इर्शाद जाहिलों से फ़तवा लेना हराम है । ( फ़तावा रज़विय्या , 12/426 ) 


    शरीअत की पाबन्दी पर आला हज़रत Sayyadi Ahmad Raza Khan Barelvi का इर्शादत

    ( 25 ) जिस का ज़ाहिर ज़ेवरे शर से आरास्ता नहीं ( या'नी जो ज़ाहिरी तौर पर शरीअत के अहकाम की पाबन्दी नहीं करता ) वोह बातिन में भी अल्लाह पाक के साथ इख्लास नहीं रखता । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/541 ) 


    ( 26 ) शरीअत ही सिर्फ वोह " राह " है जिस का मुन्तहा " अल्लाह " है और जिस से वुसूल इलल्लाह ( या'नी खुदा तक पहुंचना ) है और इस के बिगैर आदमी जो राह चलेगा अल्लाह की राह से दूर पड़ेगा । ( फ़तावा रज़विय्या , 29/388 ) 


    ( 27 ) दुन्या गुज़श्तनी ( या'नी गुज़र जाने वाली ) है , यहां अहकामे शर्ड्स ( शरीअत की मुकर्रर की गई सज़ाएं ) जारी न होने से खुश न हों । एक दिन इन्साफ़ का आने वाला है जिस में शाखदार ( या'नी सींग वाली ) बकरी से मुन्डी ( या'नी बे सींग की ) बकरी का हिसाब लिया जाएगा । ( फ़्तावा रज़विय्या , 16/310 ) 


    ( 28) आला हज़रात का  इर्शाद ना जाइज़ बात को अगर कोई बद मज़हब या काफ़िर मन्अ करे तो उसे जाइज़ नहीं कहा जा सकता । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/154 ) 


    ( 29 ) किसी चीज़ की मुमानअत कुरआन व हदीस में न हो तो उसे मन्अ करने वाला ( गोया ) खुद हाकिम व शारेअ ( या'नी साहिबे शरीअत ) बनना चाहता है । ( फ़तावा रज़विय्या , 11/405 ) 


    ( 30 ) शर्प मुतहर शे'र व गैरे शे'र सब पर हुज्जत ( या'नी दलील ) है , शे'र शर्ड्स पर हुज्जत नहीं हो सकता । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/118 ) 


    ( 31 ) आला हज़रात का  इर्शाद इताअते वालिदैन जाइज़ बातों में फ़र्ज़ है अगषे वोह ( या'नी वालिदैन ) खुद मुरतकिबे कबीरा हों । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/157 )


    ( 32 ) जिस तरह औरतें अक्सर तस्वीरे शौहर ( या'नी शौहर को अपने काबू में करना ) चाहती हैं कि शौहर हमारे कहने में हो जाए जो हम कहें वोही करे , येह हराम है । 

    या येह चाहती हैं कि अपनी मां बहन से जुदा हो जाए या उन को कुछ न दे हमीं को दे , येह सब मरदूद ख्वाहिशें हैं । 

    अल्लाह पाक ने शौहर को हाकिम बनाया न कि महकूम ( खादिम ) ( फ़तावा रज़विय्या , 26/607 मुल्तकतन व ब तक़द्दुम व तअख्खुर ) 


    ( 33) जिन्न गैब से निरे ( या'नी बिल्कुल ) जाहिल हैं , उन से आयिन्दा की बात पूछनी अक्लन हमाकत ( या'नी बे वुकूफ़ी ) और शअन हराम और उन की रौबदानी का ए'तिक़ाद ( या'नी जिन्नात को गैब का इल्म होने का अक़ीदा रखना ) तो कुफ्र ( है ) । ( फ़तावा अफ्रीका , स . 178 ) 


    ( 34 ) आला हज़रात का  इर्शाद नसब के सबब अपने आप को बड़ा जानना , तकब्बुर करना जाइज़ नहीं । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/255 ) 


    ( 35 ) आला हज़रात का  इर्शाद हराम खाना कभी जाइज़ नहीं होता , जिस वक़्त जाइज़ होता है उस वक़्त वोह हराम नहीं रहता । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/225 ) 


    ( 36 ) जिस चीज़ को खुदा व रसूल अच्छा बताएं वोह अच्छी है , और जिसे बुरा फ़रमाएं वोह बुरी , और जिस से सुकूत ( या'नी ख़ामोशी इख़्तियार ) फ़रमाएं या'नी शर्ड्स से न उस की खूबी निकले न बुराई वोह इबाहते अस्लिय्या पर रहती है कि उस के फेल व तर्क ( करने या न करने ) में सवाब न इकाब ( सज़ा ) । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/320 ) 


    ( 37 ) कोई शख्स ऐसे मक़ाम तक नहीं पहुंच सकता जिस से नमाज़ रोज़ा वगैरा अहकामे शय्या साक़ित ( या'नी मुआफ ) हो जाएं जब तक अक्ल बाकी है । ( फ़तावा रज़विय्या , 14/409 )


    ( 38 ) जो बा वस्फे बकाए अक्लो इस्तिताअत ( या'नी जिस की अक्लो हिम्मत सलामत और बाक़ी हो ) कस्दन ( या'नी जान बूझ कर ) नमाज़ या रोज़ा तर्क करे हरगिज़ वलिय्युल्लाह नहीं ( बल्कि ) वलिय्युश्शैतान ( या'नी शैतान का दोस्त ) है । ( फ़तावा रज़विय्या , 14/409 ) 


    ( 39 ) हमारी शरअ अबदी ( या'नी हमेशा रहने वाली ) है , जो काइदे इस के पहले थे कियामत तक रहेंगे , जैद व अम्र का कानून तो है ही नहीं कि तीसरे साल बदल जाए । ( फ़तावा रज़विय्या , 26/540 ) 


    ( 40 ) आला हज़रात का  इर्शाद मुसल्मान होने से दोनों जहान की इज्जत हासिल होती है । ( फ़तावा रज़विय्या , 11/719 ) 


    ( 41 ) जो शख्स हदीस का मुन्किर ( या'नी इन्कार करने वाला ) है वोह नबी  का मुन्किर है और जो नबी  का मुन्किर है वोह कुरआने मजीद का मुन्किर है और जो कुरआने मजीद का मुन्किर है अल्लाह वाहिदे कहहार का मुन्किर है । ( फ़तावा रज़विय्या , 14/312 ) 


    ( 42 ) ज़बान से सब कह देते हैं कि हां हमें अल्लाह पाक व रसूल  की महब्बतो अजमत सब से ज़ाइद है मगर अमली कार रवाइयां आजमाइश ( इम्तिहान ) करा देती हैं कि कौन इस दा'वे में झूटा और कौन सच्चा ( है ) । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/177 ) 


    मौत की तय्यारी पर आला हज़रत Aala Hazrat का इर्शादत

    ( 43 ) आदमी हर वक़्त मौत के कब्जे में है , मदकूक़ ( या'नी मरीज़ ) अच्छा हो जाता है और वोह जो उस के तीमार ( या'नी बीमार पुरसी ) में दौड़ता था उस से पहले चल देता है । ( फ़तावा रज़विय्या , 9/81 )

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    मुसल्मान भाइयों से खैर ख्वाही पर आला हज़रत Ala Hazrat का इर्शादत

    ( 44 ) आला हज़रात का Ala Hazrat इर्शाद बिरादराने इस्लाम ( या'नी मुसल्मान भाइयों ) को अहकामे इस्लाम से इत्तिलाअ देनी " खैर ख़्वाही " है और मुसल्मानों की खैर ख्वाही हर मुसल्मान का हक़ है । ( फ़तावा रज़विय्या , 16/243 ) 

    ( 45 ) हुकूकुल इबाद जिस क़दर हों , जो अदा करने के हैं ( आदमी उन को ) अदा करे , जो मुआफ़ी चाहने के हैं मुआफ़ी चाहे और इस में अस्लन ( या'नी बिल्कुल ) ताख़ीर को काम में न लाए ( या'नी देर न करे ) कि येह शहादत से भी मुआफ़ नहीं होते । ( फ़तावा रज़विय्या , 9/82 ) 

    ( 46 ) जब वक़्त लोगों की नींद का हो या कुछ ( अपराद ) नमाज़ पढ़ रहे हों तो ज़िक्र करो जिस तरह ( चाहो ) मगर न इतनी आवाज़ से कि उन को ईज़ा ( या'नी तक्लीफ़ ) हो । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/179 ) 

    ( 47 ) मुआफ़ी चाहने में कितनी ही तवाज़ोअ ( या'नी आजिज़ी ) करनी पड़े इस में अपनी कस्रे शान ( या'नी बे इज्जती ) न समझे , इस में ज़िल्लत ( या'नी बे इज्जती ) नहीं । ( फ़तावा रविय्या , 9/82 ) 

    ( 48 ) मुसल्मानों को लिवज्हिल्लाह ( या'नी अल्लाह पाक की रिज़ा के लिये ) ता'वीज़ात व आ'माल दिये जाएं , दुन्यवी नफ्अ की तमअ ( या'नी लालच ) न हो । ( फ़तावा रज़विय्या , 26/608 ) 

    ( 49 ) मुसल्मानों को नफ्अ रसानी ( या'नी फ़ाएदा पहुंचाने ) से अल्लाह पाक की रिजा व रहमत मिलती है और उस की रहमत दोनों जहान का काम बना देती है । ( फ़तावा रज़विय्या , 9/621 ) 

    ( 50 ) ईसाले सवाब जिस तरह मन्ए अज़ाब ( या'नी अज़ाब को रोकने ) या रफ्ए इक़ाब ( या'नी अज़ाब के उठने ) में बि इज्निल्लाह ( या'नी अल्लाह पाक के हुक्म से ) काम देता है यूंही रपए दरजात व ज़ियादते हसनात ( या'नी दरजात की बुलन्दी और नेकियों के इज़ाफ़े ) में ( भी काम देता है ) । ( फ़तावा रज़विय्या , 9/607 ) 


    बातिनी बीमारियां पर आला हज़रत Sayyadi Ahmad Raza Khan Barelvi का इर्शादत

    ( 51 ) अगर अपनी झूटी तारीफ़ को दोस्त ( या'नी पसन्द ) रखे कि लोग उन फ़ज़ाइल से इस की सना ( ता'रीफ़ ) करें जो इस में नहीं जब तो सरीह हरामे कई है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/597 ) 


    ( 52 ) हुब्बे सना ( या'नी अपनी तारीफ़ को पसन्द करना ) गालिबन ख़स्लते मज्मूमा ( या'नी बुरी आदत ) है और इस के अवाक़िब ( या'नी नताइज ) खतरनाक हैं । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/596 मुल्तकतन ) 


    ( 53 ) नजासते बातिन नजासते ज़ाहिर से करोड़ दरजा बदतर है , नजासते ज़ाहिर एक धार पानी से पाक हो जाती है और नजासते बातिन करोड़ों समुन्दरों से नहीं धुल सकती जब तक सिद्के दिल ( या'नी सच्चे दिल ) से ईमान न लाए । ( फ़तावा रज़विय्या , 14/406 ) 


    ( 54 ) आला हज़रात का इर्शाद जिस ने अपने नफ्स को सच्चा समझा उस ने झूटे की तस्दीक़ की और खुद इस का मुशाहदा भी करेगा । ( फ़तावा रज़विय्या , 10/698 ) 


    ( 55 ) अक्ल व नक्ल व तजरिबा सब शाहिद ( या'नी गवाह ) हैं कि नफ्से अम्मारा की बाग ( या'नी लगाम ) जितनी खींचिये दबता है और जिस क़दर ढील दीजिये ज़ियादा पाउं फैलाता है । ( फ़तावा रज़विय्या , 12/469 )           

              

    ( 56 ) अल्लाह पाक पनाह दे इब्लीसे लईन के मकाइद ( या'नी मक्रो फ़रेब ) से , सख़्त तर कैद ( या'नी धोका ) येह है कि आदमी से हसनात ( या'नी नेकियों ) के धोके में सय्यिआत ( या'नी गुनाह ) कराता है और शहद के बहाने जहर पिलाता है | ( फ़तावा रज़विय्या , 21/426 ) 


    ( 57 ) बे इल्म मुजाहदा ( या'नी इल्मे दीन के बिगैर इबादतो रियाज़त करने ) वालों को शैतान उंग्लियों पर नचाता है , मुंह में लगाम , नाक में नकेल डाल कर जिधर चाहे खींचे फिरता है 

    तरजमए कन्जुल ईमान : और वोह अपने जी में समझते हैं कि हम अच्छा काम कर रहे हैं । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/528 ) 


    ( 58 ) जो शैतान को दूर समझता है शैतान उस से बहुत करीब है । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/686 ) 

    ( 59 ) जिस पर शैतान के वसाविस मख़्फ़ी ( या'नी छुपे ) हों उस इन्सान पर शर व खैर में इल्तिबास ( या'नी शुबा ) हो जाता है और शैतान उसे हसनात ( या'नी भलाइयों ) से सय्यिआत ( या'नी बुराइयों ) की तरफ़ ले जाता है और इस बात से बा अमल उलमा ही आगाह हो सकते हैं । ( फ़्तावा रज़विय्या , 10/685 ) 


    नमाजे फज्र बा जमाअत पाने का नुस्खा 

    ( 60 ) सोते वक्त अल्लाह पाक से तौफीके जमाअत ( या'नी नमाजे बा जमाअत पाने ) की दुआ और उस पर सच्चा तवक्कुल ( कर ) मौला करीम जब तेरा हुस्ने निय्यत व सिद्के अज़ीमत ( या'नी अच्छी निय्यत और इरादे की सच्चाई ) देखेगा ज़रूर तेरी मदद फ़रमाएगा । ( फ़तावा रज़विय्या , 7/90 )


    मुख्तलिफ़ पर आला हज़रत Aala Hazrat का इर्शादत

    ( 61 ) आज कल अक्सर लोग बेटी के बियाह ( या'नी निकाह ) के लिये भीक मांगते हैं और इस से मक्सूद रुसूमे मुरव्वजए ( हिन्द में राइज रस्मों ) का पूरा करना होता है , हालां कि वोह रस्में अस्लन ( या'नी बिल्कुल ) हाजते शय्या नहीं तो उन के लिये सुवाल हलाल नहीं हो सकता । ( फ़ज़ाइले दुआ , स . 270 )


    ( 62 ) निकाह शीशा है और तलाक़ संग ( या'नी पथ्थर ) , शीशे पर पथ्थर खुशी से फेंके या जब्र ( या'नी जबर दस्ती ) से या खुद हाथ से छुट पड़े शीशा हर तरह टूट जाएगा । ( फ़तावा रज़विय्या , 12/385 ) 


    ( 63 ) अहले कुबूर ( या'नी कब्र वालों ) की कुव्वते सामिआ ( या'नी सुनने की ताकत ) इस दरजे तेज़ व साफ़ व कवी तर ( या'नी मजबूत ) है कि नबातात ( या'नी पौदों ) की तस्बीह जिसे अक्सर अहूया ( या'नी ज़िन्दा अफ़ाद ) नहीं सुनते वोह ( क़ब्र वाले उसे ) बिला तकल्लुफ़ ( या'नी बिगैर किसी तक्लीफ़ के ) सुनते और उस से उन्स ( राहत ) हासिल करते हैं । ( फ़तावा रज़विय्या , 9/760 ) 


    ( 64 ) आला हज़रात का  इर्शाद सुन्नते नबविय्या है कि जहां इन्सान से कोई तक्सीर ( या'नी खता ) वाकेअ हो अमले सालेह ( नेक काम ) वहां से हट कर करे । ( फ़तावा रज़विय्या , 7/609 ) 


    ( 65 ) जो तन्दुरुस्त हो आ'ज़ा सहीह रखता हो नोकरी ख्वाह मज़दूरी अगर्चे डलिया ( या'नी छोटी टोकरी ) ढोने के जरीए से रोटी कमा सकता हो उसे सुवाल करना ( या'नी भीक मांगना ) हराम है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/416 ) 


    ( 66 ) आला हज़रात का  इर्शाद परेशान नज़री ( बिला ज़रूरत इधर उधर देखना ) व आवारा गर्दी बाइसे महरूमी है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/475 )


    ( 67 ) बहुत ( से ) अय्यार ( या'नी धोकेबाज़ ) अपने बचाव और मुसल्मानों को धोका देने के लिये ज़बानी तौबा कर लेते हैं और कल्ब ( या'नी दिल ) में वोही फ़साद भरा हुवा ( होता ) है ( फ़तावा रज़विय्या , 21/146 ) 


    ( 68 ) आला हज़रात का इर्शाद हक़ीक़तन हक्के दोस्ती येही है कि गलती पर मुतनब्बेह ( या'नी आगाह ) किया जाए । ( फ़तावा रज़विय्या , 16/371 ) 


    ( 69 ) बारहा तजरिबा कार कम इल्मों की राय किसी इन्तिज़ामी अम्र ( मुआमले ) में ना तजरिबा कार जी इल्म की राय से साइब तर ( या'नी ज़ियादा दुरुस्त ) हो सकती है । ( फ़तावा रज़विय्या , 16/128 ) 


    ( 70 ) मां बाप अगर गुनाह करते हों तो उन से ब नरमी व अदब गुज़ारिश करे अगर मान लें बेहतर वरना सख्ती नहीं कर सकता बल्कि गैबत ( या'नी गैर मौजूदगी ) में उन के लिये दुआ करे । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/157 ) 


    ( 71 ) काफ़िर को " राज़दार " बनाना मुत्लकन मम्नूअ है अगर्चे उमूरे दुन्यविय्या में हो , वोह हरगिज़ ता क़दरे कुदरत ( या'नी जहां तक मुम्किन होगा ) हमारी बद ख्वाही ( या'नी बुरा चाहने ) में कमी न करेंगे । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/233 ) 


    ( 72 ) फोहूश कलिमा ( या'नी बे हयाई की बात ) से हमेशा इज्तिनाब चाहिये । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/294 ) 


    ( 73 ) नियाज़ का ऐसे खाने पर होना बेहतर है जिस का कोई हिस्सा फेंका न जाए , जैसे ज़र्दा या हल्वा या खुश्का ( या'नी उबले हुए चावल ) या वोह पुलाव जिस में से हड्डियां अलाहदा कर ली गई हों । ( फ़तावा रज़विय्या , 9/612 ) 


    ( 74 ) अपने और अपने अहबाब के नफ़्स व अहलो माल व वलद ( या'नी अपने दोस्तों और उन की औलाद वगैरा ) पर बद दुआ न करे , क्या मालूम कि वक्ते इजाबत ( या'नी कबूलिय्यत का वक़्त ) हो और बा'दे वुकूए बला ( या'नी मुसीबत में पड़ने के बा'द ) फिर नदामत हो । ( फ़ज़ाइले दुआ , स . 212 ) 


    ( 75 ) आला हज़रात का  इर्शाद बच्चे को पाक कमाई से रोज़ी दे कि नापाक माल नापाक ही आदतें डालता है । ( फ़तावा रज़विय्या , 24/453 ) 


    ( 76 ) मां बाप की तरफ़ से बा'दे मौत कुरबानी करना अजे अज़ीम है इस ( कुरबानी करने वाले ) के लिये भी और उस के वालिदैन के लिये भी । ( फ़तावा रज़विय्या , 20/597 ) 


    ( 77 ) रोटी बाएं ( उलटे ) हाथ में ले कर दहने ( सीधे ) हाथ से नवाला तोड़ना दपए तकब्बुर ( या'नी तकब्बुर दूर करने ) के लिये है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/669 ) 


    ( 78 ) अक्ल मन्द और सआदत मन्द अगर उस्ताज़ से बढ़ भी जाएं तो इसे उस्ताज़ का फ़ैज़ और उस की बरकत समझते हैं और पहले से भी ज़ियादा उस्ताज़ के पाउं की मिट्टी पर सर मलते हैं । ( फ़तावा रज़विय्या , 24/424 ) 


    ( 79 ) बे दर्द को पराई ( या'नी दूसरों की ) मुसीबत नहीं मालूम होती । ( फ़तावा रज़विय्या , 16/310 ) 


    ( 80 ) जहां तक मुम्किन हो मुखालफ़ते आदते मुस्लिमीन ( या'नी मुसल्मानों की आदत की मुखालफ़त ) से एहतिराज़ करें ( या'नी बचें ) ( फ़तावा रज़विय्या , 16/299 ) 


    ( 81 ) जिन्नों से मुकालमे ( या'नी गुफ़्तगू ) की ख्वाहिश और मुसाहबत की तमन्ना ( में ) अस्लन खैर नहीं ( या'नी कोई भलाई नहीं ) , कम से कम जो इस का ज़रर ( या'नी नुक्सान ) है येह कि आदमी मुतकब्बिर हो जाता है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/606 )


    ( 82 ) आला हज़रात का  इर्शाद मुआफ़िये तक्सीर ( या'नी गलती को मुआफ़ करने ) में कभी ताख़ीर ही मस्लहत होती है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/606 ) 


    ( 83 ) आला हज़रात का  इर्शाद ( प्यारे आका की ) आदते करीमा ज़मीन पर दस्तर ख़्वान बिछा कर खाना तनावुल फ़रमाना थी और येही अफ़्ज़ल ( है ) । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/629 ) 


    ( 84 ) विलायत कस्बी ( या'नी कोशिश से हासिल होने वाली ) नहीं महूज़ अताई ( या'नी अल्लाह पाक की अता से मिलने वाली ) है । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/606 ) 


    ( 85 ) ख़लीफ़ा व वारिस में फ़र्क ज़ाहिर है कि आदमी की तमाम औलाद उस की वारिस है मगर जा नशीन होने की लियाकत हर एक में नहीं । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/532 ) 


    ( 86 ) जब तक जीस्त ( या'नी ज़िन्दगी ) है ( मुसल्मान को चाहिये कि ) आयात व अहादीसे ख़ौफ़ के तरजमे अक्सर सुना और देखा करे और जब वक्त बराबर ( या'नी मौत का ) आ जाए , ( दूसरे लोग ) उसे आयात व अहादीसे रहमत मअ तरजमे के सुनाएं कि जाने कि किस के पास जा रहा हूं ताकि अपने रब के साथ नेक गुमान करता उठे । ( फ़तावा रज़विय्या , 9/82 )

      

    ( 87 ) सब में पहले येह लकब ( काज़ियुल कुज़ाह ) हमारे इमामे मज़हब " इमाम अबू यूसुफ " का हुवा । ( फतावा रज़विय्या , 21/352 ता 353 मुलख्खसन ) 


    ( 88 ) सलफ़ सालेह ( या'नी पहले के ज़माने के नेक बन्दों ) की हालत जनाज़े में येह होती कि ना वाक़िफ़ को न मालूम होता कि इन में अहले मय्यित कौन है और बाकी हमराह कौन , सब एक से मगमूम व महजून ( या'नी गमज़दा ) नज़र आते और अब हाल येह है कि ( लोग ) जनाजे में दुन्यावी बातों में मश्गूल होते हैं , मौत से उन्हें कोई इब्रत नहीं होती , उन के दिल इस से गाफ़िल हैं कि मय्यित पर क्या गुज़री ! ( फ़तावा रज़विय्या , 9/145 ) 


    ( 89 ) आला हज़रात का  इर्शाद शराब हराम है और सब नजासतों गन्दगियों की मां है । इस के पीने वाले को दोज़ख़ में दोज़खियों का जलता लहू और पीप पिलाया जाएगा । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/659 ) 


    ( 90 ) सुन्नी मुसल्मान अगर किसी पर ज़ालिम नहीं तो उस के लिये बद दुआ न ( करनी ) चाहिये बल्कि दुआए हिदायत की जाए कि जो गुनाह करता है छोड़ दे । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/182 ) 


    ( 91 ) आला हज़रात  का इर्शाद ( बे नमाज़ी ) ऐसा मुसल्मान है जैसा तस्वीर का घोड़ा है कि शक्ल घोड़े की और काम कुछ नहीं । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/99 ) 

                

    ( 92 ) मस्जिद बनाना खैरे कसीर है खुसूसन अगर वहां मस्जिद की हाजत ( या'नी ज़रूरत ) हो तो उस के फ़ज़्ल ( या'नी फ़ज़ीलत ) की हद ही नहीं । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/396 मुल्तकतन ) 


    ( 93 ) कुरआने अज़ीम के मतालिब ( या'नी मआनी ) समझना बिला शुबा मतलूबे आ ज़म है मगर बे इल्मे कसीर व काफ़ी के तरजमा देख कर समझ लेना मुम्किन नहीं बल्कि इस के नफ्अ ( या'नी फ़ाएदे ) से इस का ज़रर ( नुक्सान ) बहुत ज़ियादा है जब तक किसी आलिम माहिर कामिल सुन्नी दीनदार से न पढ़े । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/382 ) 


    ( 94 ) ( जुज़ामी या'नी कोढ़ के मरज़ वाले के साथ खाना ) ब कस्दे तवाज़ोअ व तवक्कुल व इत्तिबाअ ( या'नी आजिज़ी , अल्लाह पर भरोसे से ) हो तो सवाब पाएगा । ( फ़तावा रज़विय्या , 21/102 ) 


    ( 95 ) वज़ाइफ़ जो अहादीस में इर्शाद हुए या मशाइखे किराम ने बतौरे ज़िक्रे इलाही बताए उन्हें बिला वुजू भी पढ़ सकते हैं और बा वुजू बेहतर । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/399 ) 


    ( 96 ) रात को आईना देखने की कोई मुमानअत नहीं , बा'ज़ अवाम का ख़याल है कि उस से मुंह पर झाइयां ( Freckles ) पड़ती हैं , और इस का भी कोई सुबूत न श न है न तिब्बन न तजरिबतन । ( या'नी येह बात न शरीअत से साबित है , न मेडीकल से और न ही तजरिबे से । ) ( फ़तावा रज़विय्या , 23/490 ) 


    ( 97 ) बुरी बात के लिये सिफ़ारिश करना मसलन सिफ़ारिश कर के कोई गुनाह करा देना शफाअते सय्यिआ ( या'नी बुरी सिफ़ारिश ) है , इस के फ़ाइल ( या'नी सिफ़ारिश करने वाले ) पर इस का वबाल है अगर्चे ( उस की सिफ़ारिश ) न मानी जाए । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/407 ) 


    ( 98 ) आदमी को अगर पुलाव की रिकाबी ( या'नी प्लेट ) दी जाए और कह दें कि इस के खास वस्त ( या'नी दरमियान ) में रुपिया भर जगह के करीब संखिया ( या'नी ज़हर ) पिसी हुई मिली है , डरते डरते किनारों से खाएगा और बजाए एक रुपिया के चार रुपिये की जगह छोड़ देगा । काश ! ऐसी एहतियात जो अपने बदन की मुहाफ़ज़त में करता है कल्ब ( या'नी दिल ) की निगाद्दाश्त ( या'नी निगरानी ) में बजा लाता । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/518 ) 


    ( 99 ) आला हज़रात Ala Hazrat का  इर्शाद जिसे आम लोग नहूस ( या'नी मन्हूस ) समझ रहे हैं उस से बचना मुनासिब है कि अगर हस्बे तक़दीर उसे  कोई आफ़त पहुंचे उन का बातिल अकीदा और मुस्तहकम ( या'नी मज़बूत ) होगा कि देखो येह काम किया था उस का येह नतीजा हुवा और मुम्किन ( है ) कि शैतान इस के दिल में भी वस्वसा डाले । ( फ़तावा रज़विय्या , 23/267 )


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