Mehar In Islam In Hindi, मेहर कितने प्रकार का होता है, Mahar hadees , Quran का बयान, दहेज़ , मेहर का अर्थ क्या है, मेहर मीनिंग इन उर्दू, मेहर की प्रकृत
Mehar In Islam In Hindi : इस्लाम में Mahar तय करना सुन्नत हैं इसे आप शादी के पहले या शादी में तय की जाती हैं की कितनी रकम देना हैं
ये जो मेहर हैं दूल्हे के तरफ से दुल्हन के लिए ठहराई जाती हैं यानि लड़का को ख़ुशी-ख़ुशी अपनी होने वाली बीवी को शादी के बाद देना होता हैं
Mehar In Islam In Hindi
आप का हमारा ये मुशाहदा है कि Musalmano में आज बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं जो शादी तो कर लेते हैं , महर भी बाँधते हैं । लेकिन उन्हें इस बात की मालूमात नहीं होती के मेहर कितने किस्म प्रकार का होता है ?
और उनका निकाह किस किस्म के महर पर तैय हुआ है ? लिहाज़ा मुसलमानों को ये जान लेना ज़रूरी है कि मेहर की तीन किस्में हैं
Meahr कितने प्रकार का होता है
मेहर तीन प्रकार के होते हैं
महरे मुअज्जल : महरे मुअज्जल ये है कि खिलवत से पहले महर देना करार पाया हो ( चाहे दिया कभी भी जाए ।
महरे मुवज्जल : महरे मुवज्जल ये है कि महर की रकम देने के लिए कोई वक्त मुकर्रर कर दिया जाए ।
महरे मुतलक : महरे मुतलक ये है कि जिसमें कुछ न तैय किया जाए ।
( फतावा मुस्तकृया जिल्द 3 सहा- 66 + बहारे शरीअत जिल्द -1 हिस्सा -7 सपहा 37 )
इन तमाम महर की किस्मों में महरे मुअज्जल रखना ज़्यादा अफज़ल है । यानी रुख्सती से पहले ही मेहर अदा कर दिया जाए । ( कानूने शरीअत जिल्द 2 सपहा - 60 )
Mehar का मसला 1
महरे मुअज्जल वसूल करने के लिए अगर औरत चाहे तो अपने आप को शौहर से रोक सकती है । यानी ये इख़्तियार है । कि वती ( मुबाशरत ) से बाज़ रखे और मर्द को हलाल नहीं कि औरत को मजबूर करे,
या उसके साथ किसी तरह की ज़बरदस्ती करे ये हक औरत को सिर्फ उस वक्त तक हासिल है जब तक महर वसूल न कर ले । इस दरमियान अगर औरत चाहे तो अपनी मर्जी से दती कर सकती है ।
इस दौरान भी मर्द अपनी बीवी का नान , नफका बंद नहीं कर सकता । जब मर्द औरत को उसका महर दे दे तो औरत वती करने से रोकना जाइज नहीं ।
( फतावा मुस्तविया जिल्द 3 सपहा 66 + कानूने शरीअत जिल्द -2 सफ़हा -60 )
Mehar का मसला 2
इसी तरह अगर महरे मुअज्जल था ( यानी महर अदा करने की एक ख़ास मुद्दत मुक्रर थी ) और वह मुद्दत ख़त्म हो गई तो औरत शौहर को वती करने से रोक सकती है ।
( कानूने शरीअत ( जिल्द -2 सहा -60 )
Mehar का मसला 3
औरत को महर मआफ करने के लिए मजबूर कना जाइज नहीं ( कानूने शरीअत जिल्द 2 सपहा - 60 )
Islam में Mehar पर Musalman की गलत फहमि
इस जमाने में ज्यादा तर लोग यही समझते हैं कि महर देना ! कोई जरूरी नहीं बल्कि ये सिर्फ एक रस्म है । कुछ लोगों का ख्यात है कि महर तलाक के बाद ही दिया जाता है
और कुछ लोग समझते हैं कि महर इसलिए रखते हैं कि औरत को महर देने के खौफ से तलाक नहीं दे सकेगा । यही वजह है कि हमारे हिन्दुस्तान में ज्यादा तर लोग महर नहीं देते ।
यहाँ तक कि इंतिकाल के बाद उनके जनाजे पर उनकी बीवी आ कर महर मआफ़ करती है । वैसे औरत के मआफ कर देने से महर मुआफ तो हो जाता है
लेकिन महर अदा किए बगैर दुनिया से चले जाना मुनासिब नहीं । खुदा न ख़्वास्ता पहले औरत का इंतिकाल हो गया और अगर वह महर मुआफ़ न कर सकी या महर मुआफ़ करने की उसे मोहलत ही न मिली तो " हक्कुलअब्द " में गिरफ्तार,
और दीन व दुनिया में रू सियाह व शर्मसार होगा और कयामत में सख्त पकड़ और सख़्त अज़ाब होगा । लिहाज़ा इस ख़तरे से बचने के लिए मेहर अदा कर देना ही चाहिए ।
इसमें सवाब भी है और ये हमारे प्यारे आका ( स.अ.व. ) की सुन्नत भी है ।
Mehar पर Quran का बयान
आयतः हमारा रब अज्जावजल्ला इरशाद फ़रमाता है :
तर्जमाः और औरत को उनका महर खुशी से दो ।
( तर्जमा कंजुलईमान पारा -4 सूरह निसा रुकूअ - 12 आयत - 4 )
मसला : औरत अगर होश व हवास की दुरुस्तगी में राज़ी खुशी से महर मुआफ़ कर दे तो मआफ हो जाएगा । हाँ अगर मारने की धमकी दे तो मुआफ नहीं होगा और अगर मर्जुलमौत में मुआफ कराते हैं तो इस सूरत में वुरसा की इजाज़त के बगैर मुआफ़ नहीं होगा !
( फतावा अलमगीरी जिल्द 1 सपहा 293 + दुर्रेमुख़्तार मअ शामी जिल्द -2 सपहा - 333 )
Musalman की Mehar के बारे में जिहालत
अक्सर In Islam मुसलमान अपनी हैसियत से ज्यादा महर रखते हैं और ये ख्याल करते हैं कि ज्यादा महर रख भी दिया तो क्या फर्क पड़ता है , देना तो है ही नहीं । ये सख्त जिहालत है और दीन से मजाक । ऐसे लोग इस हदीस को पढ़ कर इबरत हासिल करें ।
Mehar पर Hadees Sharif
हदीस : अबूअली तिवरानी व बैहकी हजरत उक्बा बिन आगिर ( रजि . ) से रावी है कि हुजूर अकदस ( स.अ.व. ) ने इरशाद फरमायाः " जो शख़्स निकाह करे और नियत ये हो कि औरत को महर में से कुछ न देगा तो जिस रोज़ मरेगा जानी मेरगा । "
( अबूअली तिवरानी बैहकी बहवालाए बहारे शरीअत जिल्द -1 हिस्सा- 7 सपहा- 32 )
लिहाजा महर इतना ही रखे जितना देने की हैसियत है और महर जितनी जल्दी हो सके अदा कर दे कि यही अफ़ज़ल तरीका हैं
हदीस : रसूले मकबूल ( स.अ.व. ) इरशाद फरमाते हैं : " औरतों में वे बहुत बेहतर है जिसका हुस्न व जमाल ज़्यादा हो और महर कम हो । " ( कीमियाए सआदत सफ्हा- 260 )
हुजूर सय्यदना इमाम मुहम्मद गज़ाली ( रजि . ) फ़रमाते हैं : " बहुत ज़्यादा महर बाँधना मकरूह है लेकिन हैसियत से कम भी न हो । " JAN ( कीमियाए सआदत सपहा 260 )
कुछ लोग कम से कम महर बाँधते हैं और दलील ये देते हैं । कि रुपये , पैसों से क्या होता है , दिल मिलना चाहिए । ये भी गलत है ।
महर की अहमियत को घटाने के लिए अगर कोई कम महर बाँधे तो ये भी ठीक नहीं । औरतों को अपना महर ज़्यादा लेने का हक़ है और इस हक़ से उनको कोई मर्द रोक नहीं सकता ।
महर की ज्यादा से ज़्यादा कितनी मिक्दार हो ये हद शरीअत में मुतअय्यन नहीं जिस हद पर बात तैय हो जाए उतना बाँधा जाए लेकिन महर की कम से कम हद मुतअय्यन है ।
हदीस : हदीस पाक में है :
तर्जमाः महर दस दिरहम चाँदी से कम न हो । मसला : महर की कम से कम मिक्दार दस दिरहम चाँदी है । और दस दिरहम चाँदी दो तोला , साढ़े सात माशा के बराबर होती है ।
लिहाजा इतनी चाँदी निकाह के वक्त बाज़ार में जितने की मिले कम से कम उतने रुपये का Mehar हो सकता है । इससे कम का नहीं हो सकता है ।
( फतावा आलमगीरी जिल्द 1 सपहा - 283 + फ़तावा फैजुर्रसूल जिल्द -1 सपहा - 712 )