nafil, farz roze ki niyat ki dua sehri in hindi, arabic, english, roza todne,fasid na rakhne ka fidya - kaffara, रोज़े की नियत की दुआ, रोज़े का कफ़्फ़ारा
Roze Ki Niyat Ki Dua Sehri
Roze Ki Niyat Ki Dua In Arabic
Roze Ki Niyat Ki Dua In Hindi
Roze Ki Niyat Ki Dua In Roman English
रोज़ा ना रखने की 33 जरुरी बाते / Roza Na Rakhne Ki 33 Wajha
अलबत्ता क़ज़ा का गुनाह नहीं होगा जैसा कि " बहारे शरीअत जिल्द अव्वल सफ़हा 1002 " पर " दुरे मुख़्तार " के हवाले से लिखा है कि सफ़र व हम्ल और बच्चे को दूध पिलाना
और मरज़ और बुढ़ापा और खौफे हलाकत व इक्राह ( या'नी अगर कोई जान से मार डालने या किसी उज्व के काट डालने
या सख्त मार मारने की सहीह धम्की दे कर कहे कि रोज़ा तोड़ डाल अगर रोज़ादार जानता हो कि येह कहने वाला जो कुछ कहता है
कर गुज़रेगा तो ऐसी सूरत में रोज़ा फ़ासिद कर देना या तर्क करना गुनाह नहीं । " इक्राह से मुराद येही है " ) व नुक्साने अक्ल और जिहाद येह सब रोज़ा न रखने के उज्र हैं इन वुजूह से अगर कोई रोज़ा न रखे तो गुनाहगार नहीं ।
( वोह मजबूरी ख़त्म हो जाने की सूरत में हर रोजे के बदले एक रोज़ा क़ज़ा रखना होगा )
( 1 ) मुसाफ़िर को रोज़ा रखने या न Na रखने का इख़्तियार है ।
( 2 ) अगर खुद उस मुसाफ़िर को और उस के साथ वाले को रोज़ा रखने में ज़रर ( या'नी नुक्सान ) न पहुंचे तो रोज़ा रखना सफ़र में बेहतर है
और अगर दोनों या उन में से किसी एक को नुक्सान हो रहा हो तो रोज़ा न रखना बेहतर है ।
( 3 ) मुसाफ़िर ने ज़हबए कुब्रा ' से पेश्तर इक़ामत की और अभी कुछ खाया नहीं तो रोजे की निय्यत कर लेना वाजिब है ।
( 4 ) दिन में अगर सफ़र किया तो उस दिन का रोज़ा छोड़ देने के लिये आज का सफ़र उज्र नहीं ।
अलबत्ता अगर दौराने सफ़र तोड़ देंगे तो कफ्फारा लाज़िम न आएगा मगर गुनाह ज़रूर होगा ।और रोज़ा क़ज़ा करना फ़र्ज़ रहेगा ।
( 5 ) अगर सफ़र शुरू करने से पहले तोड़ दिया फिर सफ़र किया तो ( अगर कफ्फ़ारे के शराइत पाए गए तो क़ज़ा के साथ साथ ) कफ्फारा भी लाज़िम आएगा ।
( 6 ) अगर दिन में सफर शुरू किया ( और दौराने सफ़र रोज़ा तोड़ा न था ) और मकान पर कोई चीज़ भूल गए थे उसे लेने वापस आए
और अब अगर आ कर रोज़ा तोड़ डाला तो ( शराइत पाए जाने की सूरत में ) कफ्फारा भी वाजिब है । अगर दौराने सफ़र ही तोड़ दिया गुज़रा । होता तो सिर्फ क़ज़ा रखना फ़र्ज़ होता जैसा कि नम्बर 4 में
( 7 ) किसी को रोज़ा तोड़ डालने पर मजबूर किया गया तो रोज़ा तो तोड़ सकता है मगर सब्र किया तो अज्र मिलेगा । ( मजबूरी की तारीफ़ सफ़हा 1027 पर देख लीजिये )
( 8 ) सांप ने डस लिया और जान खतरे में पड़ गई तो रोज़ा तोड़ दे Roza Todhne ।
( 9 ) जिन लोगों ने इन मजबूरियों के सबब रोज़ा तोड़ा उन पर फ़र्ज़ है कि उन रोज़ों की क़ज़ा रखें और इन क़ज़ा रोज़ों में तरतीब फ़र्ज़ नहीं ,
लिहाज़ा अगर उन रोज़ों की क़ज़ा करने से क़ब्ल नफ़्ल रोजे रखे तो येह नफ़्ल रोज़े हो गए , मगर हुक्म येह है कि उज्र जाने के बा'द आयिन्दा रमज़ानुल मुबारक के आने से पहले पहले क़ज़ा रख लें ।
हदीसे पाक में फ़रमाया : " जिस पर गुज़श्ता रमज़ानुल मुबारक की क़ज़ा बाकी है और वोह न रखे , उस के इस रमज़ानुल मुबारक के रोजे कबूल न होंगे । "
अगर वक़्त गुज़रता गया और क़ज़ा रोजे न रखे यहां तक कि दूसरा रमज़ान शरीफ़ आ गया तो अब क़ज़ा रोजे रखने के बजाए पहले इसी रमज़ानुल मुबारक के रोजे रख लीजिये , कज़ा रखे ।
बा'द में रख लीजिये । बल्कि अगर गैरे मरीज़ व मुसाफ़िर ने क़ज़ा की निय्यत की जब भी क़ज़ा नहीं बल्कि इसी रमज़ान शरीफ़ के रोज़े हैं ।
( 10 ) भूक और प्यास ऐसी हो कि हलाक ( या'नी जान चली जाने ) का खौफे सहीह हो या नुक्साने अक्ल का अन्देशा हो तो रोज़ा न फ़ासिकया गैर मुस्लिम डोक्टर रोजा न रखने का मश्वरा दे तो ?
( 11 ) फुकहाए किराम ने रोज़ा न रखने के लिये जो रुख्सा बयान की हैं उन में येह भी दाखिल है कि मरीज़ को मरज़ बढ़ जाने या देर में अच्छा होने या तन्दुरुस्त को बीमार हो जाने का गुमाने गालिब हो तो
इजाज़त है कि उस दिन रोज़ा न रखे । इस गुमाने गालिब के हुसूल ( या'नी हासिल करने ) की तीसरी सूरत किसी मुसल्मान , हाजिक तबीब मस्तूर या'नी गैरे फ़ासिक माहिर डॉक्टर की ख़बर भी है
लेकिन फ़ी ज़माना ऐसे तबीब ( डॉक्टर ) का मिलना बहुत ही मुश्किल है तो अब ज़रूरते ज़माना का लिहाज़ करते हुए इस बात की इजाज़त है
कि अगर कोई काबिले ए'तिमाद फ़ासिक या गैर मुस्लिम तबीब ( डॉक्टर ) भी रोज़ा रखने को सिहहत के लिये नुक्सान देह करार दे और रोज़ा तर्क करने का कहे
और मरीज़ भी अपनी तरफ़ से ज़न व तहरीं ( या'नी अच्छी तरह गौर ) करे जिस से उसे रोज़ा तोड़ना या न रखना ही समझ आए तो अब अगर उस ने अपने ज़न्ने गालिब ( या'नी मज़बूत सोच ) पर अमल करते हुए रोज़ा तोड़ा या रोज़ा न रखा तो उसे गुनाह नहीं होगा
और रोज़ा तोड़ने की सूरत में कफ्फ़ारा भी उस पर लाज़िम न होगा मगर क़ज़ा बहर सूरत ज़रूर फ़र्ज़ होगी
और तह ( या'नी गौर करने ) में येह भी ज़रूरी है कि मरीज़ का दिल इस बात पर जमे कि येह तबीब ( या'नी डॉक्टर ) ख्वाह म ख्वाह रोज़ा तोड़ने का नहीं कह रहा
और इस में भी ज़ियादा बेहतर येह होगा कि एक से ज़ाइद डॉक्टर्ज़ से राय ले । रोज़ा और हैज़ व निफ़ास
( 12 ) रोजे की हालत में हैज़ या निफ़ास शुरू हो गया तो वोह रोज़ा जाता रहा उस की क़ज़ा रखे , फ़र्ज़ था तो क़ज़ा फ़र्ज़ है और नफ़्ल था तो क़ज़ा वाजिब ।
हैज़ व निफ़ास की हालत में सज्दए शुक्र व सज्दए तिलावत हराम है और आयते सज्दा सुनने से इस पर सज्दा वाजिब नहीं । ( बहारे शरीअत , जि . 1 , स . 382 )
( 13 ) हैज़ या निफ़ास की हालत में नमाज़ , रोज़ा हराम है और ऐसी हालत में नमाज़ व रोज़ा सहीह होते ही नहीं ।
नीज़ तिलावते कुरआने पाक या कुरआने पाक की आयाते मुक़द्दसा या उन का तरजमा छूना येह सब भी हराम है । ( ऐज़न , स . 379 , 380 )
( 14 ) हैज़ या निफ़ास वाली के लिये इख़्तियार है कि छुप कर खाए या जाहिरन , रोज़ादार की तरह रहना उस पर ज़रूरी नहीं ।
( 15 ) मगर छुप कर खाना बेहतर है खुसूसन हैज़ वाली के लिये । ( बहारे शरीअत , जि . 1 , स . 1004 )
( 16 ) हम्ल वाली या दूध पिलाने वाली औरत को अगर अपनी या बच्चे की जान जाने का सहीह अन्देशा है तो इजाज़त कि इस वक्त रोज़ा न रखे ,
ख्वाह दूध पिलाने वाली बच्चे की मां हो या दाई , अगषे रमज़ानुल मुबारक में दूध पिलाने की नोकरी इख्तियार की हो । उम्र रसीदा बुजुर्ग के रोजे
( 17 ) " शैखे फ़ानी " या'नी वोह मुअम्मर बुजुर्ग जिन की उम्र ऐसी हो गई कि अब वोह रोज़ बरोज़ कमज़ोर ही होते जाएंगे ,
जब वोह रोज़ा रखने से आजिज़ ( या'नी मजबूर व बेबस ) हो जाएं या'नी न अब रख सकते हैं न आयिन्दा रोजे की ताक़त आने की उम्मीद है उन्हें अब रोज़ा न रखने की इजाज़त है ,
लिहाज़ा हर रोजे के बदले में " फ़िदया " या'नी दोनों वक्त एक मिस्कीन को भरपेट खाना खिलाना उस पर वाजिब है या हर रोजे के बदले एक सदकए फ़ित्र की मिक्दार मिस्कीन को दे दें ।
( सदक़ए फ़ित्र की एक मिक्दार 2 किलो में 80 ग्राम कम गेहूं या उस का आटा या उन गेहूं की रक़म है )
( 18 ) अगर ऐसा बूढ़ा गर्मियों में रोजे नहीं रख सकता तो न Na रखे मगर इस के बदले सर्दियों में रखना फ़र्ज़ है ।
( 19 ) अगर फ़िदया देने के बाद Roza Rakhne ki ताकत आ गई तो दिया हुवा फ़िदया सदक़ए नफ्ल हो गया । उन रोज़ों की क़ज़ा रखें ।
( 20 ) येह इख़्तियार है कि शुरूए Ramzan ही में पूरे रमज़ान ( के तमाम रोज़ों ) का एक दम फ़िदया दे दें या आखिर में ( सब इकठे दे ) दें ।
( 21 ) फ़िदया देने में येह ज़रूरी नहीं कि जितने फ़िदये हों उतने ही मसाकीन को अलग अलग दें , बल्कि एक ही मिस्कीन को कई दिन के ( एक साथ ) भी दिये जा सकते हैं । नफ़्ल रोज़ा तोड़ने में सिर्फ क़ज़ा होती है कफ्फारा नहीं
( 22 ) नफ़्ल रोज़ा कस्दन शुरूअ करने वाले पर अब पूरा करना वाजिब हो जाता है कि तोड़ दिया तो क़ज़ा वाजिब होगी ।
( 23 ) अगर आप ने येह गुमान कर के रोज़ा रखा कि मेरे ज़िम्मे कोई रोज़ा है मगर रोज़ा शुरू करने के बाद मालूम हुवा कि मुझ पर किसी किस्म का कोई रोज़ा नहीं है ,
अब अगर फ़ौरन तोड़ दिया तो कुछ नहीं और येह मा'लूम करने के बाद अगर फ़ौरन न तोड़ा , तो अब नहीं तोड़ सकते , अगर तोड़ेंगे तो क़ज़ा वाजिब होगी ।
( 24 ) नफ़्ल रोज़ा कस्दन ( या'नी जान बूझ कर ) नहीं तोड़ा बल्कि बिला इख्तियार टूट गया , मसलन दौराने रोज़ा औरत को हैज़ आ गया , जब भी क़ज़ा वाजिब है । साल में पांच रोजे हराम हैं
( 25 ) ईदुल फित्र या बकर ईद के चार दिन या'नी 10 , 11 , 12 , 13 जुल हिज्जतिल हराम में से किसी भी दिन का रोज़ए नफ़्ल रखा तो
( चूंकि इन पांच दिनों में रोज़ा रखना हराम है लिहाज़ा ) इस रोजे का पूरा करना वाजिब नहीं , न इस के तोड़ने पर क़ज़ा वाजिब , बल्कि इस का तोड़ देना ही वाजिब है
और अगर इन दिनों में रोज़ा रखने की मन्नत मानी तो मन्नत पूरी करनी वाजिब है मगर इन दिनों में नहीं बल्कि और दिनों में ।
( 26 ) नफ़्ल रोज़ा बिला उज्र तोड़ देना ना जाइज़ है , मेहमान के साथ अगर मेज़बान न खाएगा तो उसे ना गवार होगा या मेहमान अगर खाना न खाएगा तो मेज़बान को अज़िय्यत होगी
तो नफ़्ल रोज़ा तोड़ देने के लिये येह उज्र है , बशर्ते कि येह भरोसा हो कि इस की क़ज़ा रख लेगा और ज़हूवए कुब्रा से पहले तोड़ दे बा'द को नहीं । ( बहारे शरीअत , जि . 1 , स . 1007 , ) दा'वत के सबब रोजा तोड़ना
( 27 ) दा'वत के सबब ज़हूवए कुब्रा से पहले ( नफ़्ल ) रोज़ा तोड़ सकता है जब कि दा'वत करने वाला महज़ ( या'नी सिर्फ ) इस की मौजूदगी पर राज़ी न हो
और इस के न खाने के सबब नाराज़ हो बशर्ते कि येह भरोसा हो कि बाद में रख लेगा , लिहाजा अब रोज़ा तोड़ ले और उस की क़ज़ा रखे ।
लेकिन अगर दा'वत करने वाला महज़ ( या'नी सिर्फ ) इस की मौजूदगी पर राजी हो जाए और न खाने पर नाराज़ न हो तो रोज़ा तोड़ने की इजाजत नहीं ।
( 28 ) नफ़्ल रोज़ा ज़वाल के बाद मां बाप की नाराज़ी के सबब तोड़ सकता है , और इस में असर से पहले तक तोड़ सकता है बा'दे अस नहीं बीवी बिला इजाज़ते शोहर नफ़्ल रोज़ा नहीं रख सकती
( 29 ) औरत बिगैर शोहर की इजाज़त के नफ़्ल और मन्नत व क़सम के रोजे न रखे और रख लिये तो शोहर तुड़वा सकता है
मगर तोड़ेगी तो क़ज़ा वाजिब होगी मगर इस की क़ज़ा में भी शोहर की इजाज़त दरकार है । या शोहर और उस के दरमियान जुदाई हो जाए या'नी तलाके बाइन ( तलाके बाइन : उस तलाक़ को कहते हैं
जिस से बीवी निकाह से बाहर हो जाती है , अब शोहर रुजूअ नहीं कर सकता ) दे दे या मर जाए । हां अगर रोज़ा रखने में शोहर का कुछ हरज न हो , मसलन वोह सफ़र में है
या बीमार है या एहराम में है तो इन हालतों में बिगैर इजाज़त के भी क़ज़ा रख सकती है बल्कि वोह मन्अ करे जब भी रख सकती है ।
अलबत्ता इन दिनों में भी शोहर की इजाज़त के बिगैर नफ़्ल रोज़ा नहीं रख सकती ।
( 30 ) रमज़ानुल मुबारक और कजाए रमज़ानुल मुबारक के लिये शोहर की इजाज़त की कुछ ज़रूरत नहीं बल्कि उस की मुमानअत पर भी रखे ।
( 31 ) अगर आप किसी के मुलाज़िम हैं या उस के यहां मज़दूरी पर काम करते हैं तो उस की इजाज़त के बिगैर नफ़्ल रोज़ा नहीं रख सकते क्यूं कि रोजे की वज्ह से काम में सुस्ती आएगी ।
हां रोज़ा रखने के बा वुजूद आप बा काइदा काम कर सकते हैं , उस के काम में किसी किस्म की कोताही नहीं होती , काम पूरा हो जाता है तो अब नफ़्ल रोजे की इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं ।
( 32 ) नफ़्ल रोजे के लिये बेटी को बाप , मां को बेटे , बहन को भाई से इजाजत लेने की ज़रूरत नहीं
( 33 ) मां बाप अगर बेटे को रोज़ए नफ़्ल से मन्अ कर दें इस वज्ह से कि मरज़ का अन्देशा है तो मां बाप की इताअत करे ।
अब के बारह हुरूफ़ की निस्बत से " 12 मदनी फूल " उन चीज़ों के मुतअल्लिक़ बयान किये जाते हैं जिन के करने से सिर्फ क़ज़ा लाज़िम आती है । क़ज़ा का तरीका येह है
कि हर रोजे के बदले रमज़ानुल मुबारक के बा'द क़ज़ा की निय्यत से एक रोज़ा रख लें ।
ये थी रोज़ा ना रखने की वजह Roza Na Rakhne Ki Wajha के 33 बाते जो हर मोमिन मुस्लमान को जानना बहुत जरुरी हैं और इसे बाकि लोगो तक शेयर करना पहचान लाज़मी हैं
रोज़े के कफ्फारे (Roze Ke Kaffara) के अहकाम और पूरी 11 मालूमात
रमज़ानुल मुबारक का रोज़ा रख कर बिगैर किसी सहीह मजबूरी के जान बूझ कर तोड़ देने से बा'ज़ सूरतों में सिर्फ क़ज़ा लाज़िम आती है और बा'ज़ सूरतों में क़ज़ा के साथ साथ कफ्फारा भी वाजिब हो जाता है ।
( 1 ) रमज़ानुल मुबारक में किसी आक़िल बालिग मुक़ीम ( या'नी जो शरई मुसाफ़िर न हो ) ने अदाए रोज़ए रमज़ान की निय्यत से रोज़ा रखा
और बिगैर किसी सहीह मजबूरी के जान बूझ कर जिमाअ किया या करवाया , या कोई भी चीज़ लज्जत के लिये खाई या पी तो रोज़ा टूट गया और इस की क़ज़ा और कफ्फारा दोनों लाजिम हैं ।
( बहारे शरीअत , जि . 1 , स . 991 )
( 2 ) जिस जगह रोज़ा तोड़ने से कफ्फारा लाज़िम आता है , उस में शर्त येह है कि रात ही से रोज़ए रमज़ानुल मुबारक की निय्यत की हो , अगर दिन में निय्यत की और तोड़ दिया तो कफ्फ़ारा लाज़िम नहीं सिर्फ क़ज़ा काफ़ी है ।
( 3 ) कै आई या भूल कर खाया या जिमा किया और इन सब सूरतों में इसे मालूम था कि रोज़ा न गया फिर भी खा लिया तो कफ्फारा लाज़िम नहीं ।
( 4 ) एहतिलाम हुवा और इसे मा'लूम भी था कि रोजा न गया इस के बा वुजूद खा लिया तो कफ्फारा लाज़िम है ।
( 5 ) अपना लुआब ( या'नी थूक ) थूक कर चाट लिया या दूसरे का थूक निगल लिया तो कफ्फारा नहीं मगर महबूब ( या'नी प्यारे ) का लज्जत
या मुअज्जमे दीनी ( या'नी बुजुर्ग ) का तबरूंक के तौर पर थूक निगल लिया तो कफ्फारा लाज़िम है । ख़रबूजे या तरबूज़ का छिलका खाया , अगर खुश्क हो या ऐसा हो कि लोग इस के खाने से घिन करते हों , तो कफ्फारा नहीं , वरना है ।
( 6 ) कच्चे चावल , बाजरा , मसूर , मूंग खाई तो कफ्फारा लाज़िम नहीं , येही हुक्म कच्चे जव का है और भुने हुए हों तो कफ्फारा लाज़िम । ( बहारे शरीअत , जि . 1 , स . 993 , )
( 7 ) सहरी का निवाला मुंह में था कि सुब्हे सादिक़ का वक़्त हो गया , या भूल कर खा रहे थे , निवाला मुंह में था कि याद आ गया ,
फिर भी निगल लिया तो इन दोनों सूरतों में कफ्फारा वाजिब और अगर निवाला मुंह से निकाल कर फिर खा लिया हो तो सिर्फ क़ज़ा वाजिब होगी कफ्फारा नहीं ।
( 8 ) बारी से बुखार आता था और आज बारी का दिन था लिहाज़ा येह गुमान कर के कि बुखार आएगा , रोज़ा कस्दन ( या'नी इरादतन ) तोड़ दिया तो इस सूरत में कफ्फारा साक़ित है
( या'नी कफ्फ़ारे की ज़रूरत नहीं सिर्फ क़ज़ा काफ़ी है ) यूं ही औरत को मुअय्यन ( या'नी मुकर्ररा ) तारीख पर हैज़ आता था और आज हैज़ आने का दिन था उस ने कस्दन रोजा तोड़ दिया और हैज़ न आया तो कफ्फारा साक़ित हो गया । ( मगर क़ज़ा फ़र्ज़ है )
( 9 ) अगर दो रोजे तोड़े तो दोनों के लिये दो कफ्फारे दे अगर्चे पहले का अभी कफ्फारा अदा न किया था जब कि दोनों दो रमज़ान के हों ,
और अगर दोनों रोजे एक ही रमज़ान के हों और पहले का कफ्फारा न अदा किया हो तो एक ही कफ्फारा दोनों के लिये काफ़ी है ।
( 10 ) Roze Ke Kaffara लाज़िम होने के लिये येह भी ज़रूरी है कि रोजा तोड़ने के बाद कोई ऐसा अम्र ( या'नी मुआमला ) वाकेअ न हुवा हो जो रोजे के मुनाफ़ी ( या'नी ख़िलाफ़ , उलट ) है
या बिगैर इख्तियार ऐसा अम्र ( या'नी मुआमला ) न पाया गया हो जिस की वज्ह से रोज़ा तोड़ने की रुख्सत होती ,
मसलन औरत को उस दिन हैज़ या निफ़ास आ गया या रोज़ा तोड़ने के बाद उसी दिन में ऐसा बीमार हुवा जिस में रोज़ा न रखने की इजाज़त है तो कफ्फारा साक़ित है और सफ़र से साक़ित न होगा कि येह इख्तियारी अम्र ( मुआमला ) है ।
( 11 ) जिन सूरतों में रोजा तोड़ने पर Kaffara Ke लाज़िम नहीं उन में शर्त है कि एक बार ऐसा हुवा हो और मा'सियत ( या'नी ना फ़रमानी ) का क़स्द ( इरादा ) न किया हो वरना उन में कफ्फारा देना होगा ।
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